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रविवार, 9 जून 2013


बकरियों में विषाणुजनित रोग


गांव और गरीबी से बकरियों का सीधा नाता है इसी¶िए बकरी को गरीब की गाय के नाम से जाना जाता है।
महात्मागांधी ने भी बकरी पा¶न किया और वह खुद बकरी के दूध का सेवन करते थे। बाद में कुछ ¶ोगों द्वारा यह दुष्प्रचार करने पर कि बापू की बकरी तो बादाम-पिस्ता खाती है, उन्होंने दूध पीना ही बंद कर दिया था। वर्तमान में बकरियों से करीब 15 हजार करोड़ की आय होती है। बकरी पा¶न में रोग संक्रमण और इससे मृत्युदर का ग्राफ बहुत है।
वयस्कों में इसका प्रतिशत 5 से 25 व बच्चों में 10 से 40 प्रतिशत रहता है। यदि मृत्युदर पर काबू पा ¶िया जाए तो बकरी पा¶न बेहतरीन कारोबार सिद्घ हो सकता है। रोग संक्रमणों में विषाणुजनित रोग मुख्य रूप से जिम्मेदार होते हैं।
पीपीआर-इस रोग से पशुओं की मृत्यु बहुत तेजी से होती है इसी¶िए इस रोग को बकरी के प्¶ेग के नाम से भी जानते हैं। इस रोग के दौरान पशु को काफी तेज बुखार आता है।
नाक-आंख से पानी बहने के साथ दस्त आदि के लक्षण दिखते हैं। मुंह में छा¶े भी हो जाते हैं। भेड़,़ बकरियों को इस रोग के प्रभाव से बचाने के ¶िए पीपीआर का टीका लगाया जाता है। यह टीका बकरी के चार माह के बच्चे को लगाया जाता है। इसका असर तीन सा¶ तक रहता है।
खुरपका, मुॅंहपका रोग-यह रोग छोटे और बड़े सभी पशुओं में होता है। इसका असर विशेषकर बरसात और गर्मी की मिश्रित स्थिति में दिखता है। मानसून के प्रारंभ में ही यह रोग पशुओं को अपने प्रभाव में ¶े ¶ेता है। इस रोग के संक्रमण से पशु के खुर सड़ जाते हैं। मुंह में छा¶े बनकर पक जाते हैं। पशु न तो ठीक से खड़े होने, न घूमने लायक और न ही चारा खाने लायक होता है। इससे कमजोर होकर वह अन्य रोगों की गिरफ्त में आकर का¶ कव¶ित हो जाता है। इस रोग के लिए अभियान च¶ाकर पशुपा¶न विभाग द्वारा टीके लगाए गए हैं। जिन पशुओं को टीका नहीं लगा है वह तत्का¶ निकट के पशु चिकित्सा¶य पर टीका लगवाएं।
ब्लू टंग- यह रोग कीड़े मकौड़ों के माध्यम से फैलता है।
इस रोग से प्रभावित पशु सुस्त होकर चारा छोड़ देता है। मुंह व नाक पर ला¶ी बढ़ जाती है। इसका निदान भी टीके के माध्यम से होता है। उल्लेखनीय है पशु को रोग के प्रभाव में आने से पूर्व ही टीका लगाने लाभ होता है। रोग बढ़ने पर टीके का कोई विशेष लाभ नहीं होता।
बकरी चेचक-यह रोग भी बकरियों में महामारी की तरह फैलता है। इसके प्रभाव से पशु के शरीर पर चकत्ते बन जाते हैं और अंतत: पशु मृत्यु का शिकार बन जाता है। इस रोग से बचाव के ¶िए भी बकरी के तीन चार माह के बच्चे को टीका लगवा देना चाहिए।
मुॅंहा रोग- इस बीमारी के प्रभाव से मुॅंह, थन, योनिमुख, कान आदि पर त्वचा कड़ी हो जाती है और उस पर छा¶े बन जाते हैं। बकरी के बच्चों में इसका प्रभाव होठों पर दिखता है। इस रोग के लक्षण दिखने पर तुरंत चिकित्सक से संपर्क कर उपचार कराना चाहिए।
बकरियों में विषाणुजनित रोग

तीखी मिर्च देगी मुनाफा


दिलीप कुमार यादव 
मिर्च भारतीयों के भोजन की जान है। गर्मी के समय में लोग सलाद के साथ कच्ची मिर्च चाव से खाते हैं। इसमें तीखापन ओलियोरेजिल कैप्सिसिन नामक एक उड़नशी¶ एल्केलक्ष्ड के कारण तथा उग्रता कैप्साइसिन नामक रवेदार उग्र पदार्थ के कारण होती है। मसाले से लेकर सब्जियों और चटनियों में इसका प्रयोग किया जाता है। मिर्च के बीज में 0.16 से 0.39 प्रतिशत तक तेल होता है। मिर्च में अनेक औषधीय गुण भी होते हैं। औद्यानिक मिशन से जुड़ने के बाद इन किसानों की मिर्च देश की हर बड़ी मण्डी में जा रही है। मुम्बई से लेकर जयपुर तक यहाँ की मिर्च जाती है। संगठित खेती से मुनाफा भी बढ़ रहा है।
इसकी खेती गर्म और आर्द्र जलवायु में भली-भांति होती है। लेकिन फलों के पकते समय शुष्क मौसम का होना आवश्यक है। बीजों का अच्छा अंकुरण 18-30 सेण्टीग्रेट तापामन पर होता है। मिर्च के फूल व फल आने के ¶िए सबसे उपयुक्त तापमान 25-30 डिग्री सेण्टीग्रेट होता है।
पूसा ज्वाला किस्म के पौधे छोटे आकार के और पत्तियां चौड़ी होती हैं। फल 9-10 सेण्टीमीटर लम्बे ,पत¶े व हल्के हरे रंग के होते हैं। उपज 75-80 क्विंटल प्रति हैक्टेअर हरी मिर्च के लिए तथा 18-20 क्विंटल सूखी मिर्च के लिए होती है।
पूसा सदाबाहर किस्म के पौधे सीधे व लम्बे, 60 - 80 सेण्टीमीटर के होते हैं। फल 6-8 सेण्टीमीटर लम्बे, गुच्छों में होते हैं और 6-14 फल प्रति गुच्छे में आते हैं। पैदावार 90-100 क्विंटल, हरी मिर्च के ¶िए तथा 20 क्विंटल प्रति हैक्टेअर सूखी मिर्च के लिए होती है।
बीज-दरएक से डेढ़ किलोग्राम अच्छी मिर्च का बीज लगभग एक हैक्टेयर में रोपने लायक पौध तैयार कर देता है।
बुवाई- मैदानी और पहाड़ी दोनों ही इलाकों में मिर्च बोने के ¶िए सर्वोतम समय अप्रैल-जून तक का होता है। बड़े फ¶ों वा¶ी किस्में मैदानों में अगस्त से सितम्बर तक या उससे पूर्व जूनजु लाई में भी बोई जा सकती हैं।
खाद एवं उर्वरक- गोबर की सड़ी हुई खाद लगभग 300-400 क्विंटल जुताई के समय गोबर मिट्टी में मिला देना चाहिए । रोपाई से पहले 150 किलोग्राम यूरिया ,175 किलोग्राम सिंगल सुपर फस्फेट तथा 100 कि¶ोग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश तथा 150 कि¶ोग्राम यूरिया बाद में लगाने की सिफारिश की गई है।
यूरिया उर्वरक फूल आने से पह¶े अवश्य दे देना चाहिए।
पौध संरक्षण- आर्द्रगलन रोग ज्यादातर नर्सरी की पौध में आता है। इस रोग में सतह , जमीन के पास से तना ग¶ने लगता है तथा पौध मर जाती है। इस रोग से बचाने के ¶िए बुआई से पहले बीज का उपचार फफंदूनाशक दवा कैप्टान 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से करना चाहिए। इसके अलावा कैप्टान 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर सप्ताह में एक बार नर्सरी में छिड़काव किया जाना चाहिए।
एन्थ्रेकAोज रोग में पत्तियों और फलों में विशेष आकार के गहरे, भूरे और का¶े रंग के धब्बे पड़ते हैं। इसके प्रभाव से पैदावार बहुत घट जाती है। इसके बचाव के लिए एम-45 या बावस्टीन नामक दवा 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
मरोडिया लीफ कर्ल रोग मिर्च की एक भंयकर बीमारी है। यह रोग बरसात की फस¶ में ज्यादातर आता है। शुरू में पत्ते मुरझ जाते हैं एवं वृद्घि रुक जाती है। अगर इसे समय रहते नियंत्रण नहीं किया गया हो तो ये पैदावार को भारी नकुसान पहुँचाता है। यह एक विषाणु रोग है जिसका किसी दवा द्वारा नित्रंयण नहीं किया जा सकता है। यह रोग सफेद मक्खी से फैलता है। अत: इसका नियंत्रण भी सफेद मक्खी से छुटकारा पा कर ही किया जा सकता है। इसके नियंत्रण के ¶िए रोगयुक्त पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर दें तथा 15 दिन के अतंरा¶ में कीटनाशक रोगर या मैटासिस्टाक्स 2 मिली¶ीटर प्रति लीटर पानी में घो¶कर छिड़काव करें। इस रोग की प्रतिरोधी किस्में जैसे-पूसा ज्वा¶ा, पूसा सदाबाहर और पन्त सी-1 को लगाना चाहिए।
मौजेक रोग में हल्के पी¶े रंग के घब्बे पत्ताें पर पड़ जाते हैं। बाद में पत्तियाँ पूरी तरह से पीली पड़ जाती हैं। तथा वृद्घि रुक जाती है। यह भी एक विषाणु रोग है जिसका नियंत्रण मरोडिया रोग की तरह ही है। थ्रिप्स एवं एफिड कीट पत्तियों से रस चूसते हैं और उपज के ¶िए हानिकारक होते हैं। रोगर या मैटासिस्टाक्स 2 मिली¶ीटर प्रति लीटर पानी में घो¶ बनाकर छिड़काव करने से इनका नियंत्रण किया जा सकता है।
मथुरा के छिनपारई गांव की मिर्च को मिला मुम्बई जयपुर में बाजार

बागवानी करें हल्दी की खेती


हल्दी के बगैर किसी सब्जी के स्वाद की कल्पना ही नहीं की जा सकती। यह मसा¶ों का राजा होने के साथ औषधीय गुणों से भरपूर होती है। इसकी खेती सरल होने के साथ इसे आमदनी का एक अच्छा साधन बनाया जा सकता है।
हल्दी की खेती बलुई दोमट या मटियार दोमट मृदा में सफलतापूर्वक की जाती है। इसके लिए ज¶ निकास की उचित व्यवस्था होना चाहिए। यदि जमीन थोड़ी अम्लीय है तो उसमें हल्दी की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। हल्दी की खेती हेतु भूमि की अच्छी तैयारी करने की आवश्यकता है क्योंकि यह जमीन के अंदर होती है जिससे जमीन को अच्छी तरह से भुरभुरी बनाया जाना आवश्यक है। खेत करीब नौ इंच की गहराई तक जोतना चाहिए। जुताई से पूर्व 20 से 25 टन गोबर की सड़ी खाद एक हैक्टेयर में डा¶नी चाहिए।
इसके बाद 100-120 कि¶ोग्राम नत्रजन 60-80 कि¶ोग्राम फास्फोरस, 80-100 कि¶ोग्राम पोटाश का प्रयोग करना चाहिए। हल्दी की खेती हेतु पोटाश का बहुत महत्व है जो इसके प्रयोग के अभाव में, हल्दी की गुणवत्ता तथा उपज दोनों ही प्रभावित होती है।
हल्दी की सफल खेती हेतु उचित फस¶ चक्र का अपनाना अति आवश्यक है। इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि हल्दी की खेती लगातार उसी जमीन पर न की जाए क्योंकि यह फस¶ जमीन से ज्यादा से ज्यादा पोषक तत्वों को खींचती है। इससे दूसरे सा¶ उसी जमीन में इसकी खेती नहीं करें तो ज्यादा अच्छा होगा। सिंचित क्षेत्रों में मक्का, आ¶ू, मिर्च, ज्वार, धान, मूंगफली आदि फस¶ों के साथ फस¶ चक्र अपनाकर हल्दी की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है।
मसा¶े वा¶ी किस्म, पूना, सोनिया, गौतम, रश्मि, सुरोमा, रोमा,कृष्णा, गुन्टूर, मेघा, हल्दा-1, सुकर्ण तथा सुगंधन आदि इसकी प्रमुख प्रजातियां हैं जिनका चुनाव किसान कर सकते हैं। इसकी थोड़ी सी मात्रा यदि एक बार मिल जाती है तो फिर अपना बीज तैयार किया जा सकता है।
पानी की पर्याप्त सुविधा वा¶े किसान अप्रै¶ के दूसरे पखवाड़े से जु¶ाई के प्रथम सप्ताह तक हल्दी को लगा सकते हैं, ¶ेकिन जिनके पास सिंचाई सुविधा का पर्याप्त मात्रा में अभाव है वे मानसून की बारिश शुरू होते ही हल्दी लगा सकते हैं। जमीन अच्छी तरह से तैयार करने के बाद 5-7 मीटर लम्बी तथा 2-3 मीटर चौड़ी क्यांरियां बनाकर 30 से 45 सेण्टीमीटर कतार से कतार तथा 20 - 25 सेण्टीमीटर पौध से पौध की दूरी रखते हुए 4-5 सेण्टीमीटर गहराई पर गाठी कन्दों को लगाना चाहिए। प्रति हैक्टेयर 12 से 15 कुंतल कंदों की आवश्यक्ता होती है। हल्दी में ज्यादा सिंचाई की आवश्यकता नहीं है ¶ेकिन यदि फस¶ गर्मी में ही बोई जाती है तो वर्षा प्रारंभ होने के पह¶े तक 4-5 सिंचाई की आवश्यकता पड़ती हैं। मानसून आने के बाद सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है। नवम्बर माह में पत्तियों का विकास तथा कन्द की मोटाई बढ़ना आरंभ हो जाता है तो उस समय उपज ज्यादा प्राप्त करने हेतु मिट्टी चढ़ाना आवश्यक हो जाता है जिससे कन्दों का विकास अच्छा होता है तथा उत्पादन में वृद्घि हो जाती है। मई- जून में बोई गई फस¶ फरवरी माह तक खोदने लायक हो जाती है। इस समय धन कन्दों का विकास हो जाता है और पत्तियां पीली पड़कर सूखने लगती हैं।
हल्दी की अगेती फस¶ 7-8 माह मध्यम 8-9 माह तथा देर से पकने वा¶ी 9-10 माह में पककर तैयार हो जाती है। उपरोक्त मात्रा में उर्वरक तथा गोबर की खाद का प्रयोग कर के हम 50-100 किवंटल प्रति हैक्टेयर कच्ची हल्दी प्राप्त कर सकते हंै। यह ध्यान रहे कि कच्ची हल्दी को सुखाने के बाद वह 15-25 प्रतिशत ही रह जाती है।

नस्ल सुधार को समङों पशुपालक


नस्ल सुधार को समङों पशुपालक पशुपालन एक कार्य है और नस्ल सुधार अलग विषय है। आमतौर पर पशुपालक केवल पशुपालन करते हैं। नस्ल सुधार का काम कैसे हो यह उनके बूते की बात नहीं होती। जब उनका पशु गर्मी में आता है और वह मनचाही नस्ल चाहने के लिए गर्भाधान कराने जाते हैं तब या तो सरकारी छुट्टी होती है या फिर चिकित्सक नहीं मिल पाता। ऐसे में गांव के घुमक्कड़ सांड़ों से पशुओं का गर्भाधान कराना उनकी मजबूरी बन जाता है। राजस्थान के सीमावर्ती जनपदों में वही नस्ल अच्छा उत्पादन दे सकती हैं जिनमें गर्मी को सहन करने की क्षमता हो। इस तथ्य को ध्यान में रखकर ही पशु खरीदना चाहिए।
गर्मियों के मौसम में तापमान 50 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो जाने, पेयजल की कमी एवं हरे चारे की अनुपलब्धता जैसे कारणों की वजह से थारपारकर अथवा गिर नस्ल की गायों का पालन लाभकारी सिद्ध हो रहा है।
थारपारकर गायों की नस्ल राजस्थान के बाड़मेर, जैसलमेर एवं जोधपुर जिलों में मिलती हैं। इनकी कद-काठी मजबूत होने के कारण इनमें उच्च तापमान सहने, सूखे चारे से जीवनयापन करने एवं एक दुग्ध उत्पादन का¶(ब्यांत) में औसतन 1800 से 2500 लीटर दूध देने की क्षमता होती है। इनके दूध में वसा की मात्रा भी देशी गायों की तुलना में अधिक होती है। इसी प्रकार गिर नस्ल की गायें भी राजस्थान के लिए या राजस्थान के सीमावर्ती इलाकों के लिए मुफीद मानी गईं हैं। यह गाय राजस्थान के अजमेर, जोधपुर, पाली, भीलवाडा एवं गुजरात के काठियावाड़ जिलों में मिलती है। इस नस्ल की गायों की मजबूत कद-काठी होती है जो जंगल में घूमकर अपना भोजन जुटा लेती हैं। इस नस्ल की गायें एक दुग्ध उत्पादन का¶(ब्यांत) में औसतन 1800 लीटर दूध देती हैं। इन दोनों गायों की नस्लों की कुछ खासियतें होने की वजह से भरतपुर जिले में लुपिन फाउण्डेशन ने 230 गाय पशुपा¶कों को उपलब्ध कराई हैं। इसके साथ ही नस्ल सुधार के लिए 12 सांड भी पशुपालकों को मुहैया कराये हैं। इन सांड़ों के प्राकृतिक गर्भाधान विधि द्वारा जिले में गिर व थारपारकर गायों की नस्¶ों को और बढ़ावा मिलेगा।
जिन किसानों के पास पर्याप्त हरे चारे, पेयजल एवं संतुलित दाना आदि की व्यवस्था है उनके लिए भैंसपालन अधिक लाभकारी माना गया है। भैंसपालन के लिए हरियाणा की मुर्रा नस्ल की भैंस अधिक उपयोगी सिद्घ होती है। मुर्रा नस्ल की भैंसें हरियाणा के रोहतक, जींद, हिसार एवं पंजाब के पटिया¶ा जिलों में बहुतायत में मिलती हैं। इस नस्ल की भैंसों का रंग का¶ा, आंखें चमकीली, पीठ चौड़ी, उभरा हुआ सिर, सींग गोल व घुमावदार होते हैं जो एक दुग्ध उत्पादन काल (ब्यांत) में औसतन 1500 से 2500 लीटर दूध देती हैं। दूध में वसा की मात्रा 7 से 8 प्रतिशत होती है। इस वजह से अन्य दुधारू पशुओं के दूध के मुकाबले मुर्रा नस्ल की भैंसों का दूध अधिक दर पर बिकता है।
मुर्रा नस्ल की भैंसों में दुग्ध उत्पादन की क्षमता अधिक होने को देखते हुए लुपिन फाउण्डेशन ने सामान्य भैंसों के स्थान पर मुर्रा नस्ल की भैंसों को बढ़ावा देने के ¶िए 82 गांवों के 1215 पशुपा¶कों को हरियाणा से मुर्रा नस्ल की भैंसें उपलब्ध कराई हैं। इसके साथ ही हरियाणा व अन्य क्षेत्रों से 4 से 6 माह की मुर्रा नस्ल की 260 पड़िया(बच्चा) भी उपलब्ध कराए हैं जो एक-डेढ़ वर्ष में भैंस बन जाते हैं।
इसके अलावा हरियाणा से लाकर पशुपालकों को 97 भैंसा सांड भी दिलाये गए हैं ताकि ग्रामों में ये भैंसा सांड प्राकृतिक गर्भाधान से मुर्रा नस्ल की भैंसों का इजाफा कर सकें। मुर्रा नस्ल की भैंसें अधिक दुग्ध उत्पादन करने के कारण इनकी कीमत भी सामान्य भैंसों के मुकाब¶े कई गुना अधिक होती है।
औसतन मुर्रा नस्ल की भैंस 40 से 60 हजार रुपये में मिलती है जो प्रतिदिन 15 से 20 लीटर दूध आसानी से दे देती हैं।
मुर्रा नस्ल के भैंसपालन में सबसे बड़ा लाभ यह भी है कि इसकी एक से डेढ़ वर्ष की पड़िया (बच्चा) 25 से 30 हजार रुपये में आसानी से बिक जाती है। मुर्रा नस्ल का नर बच्चा(पाड़ा) भी दो-तीन वर्ष में भैंसा बन जाता है जो 50-60 हजार रुपये में आसानी से बिक जाता है।
भरतपुर जि¶े में मुर्रा नस्ल की भैंसों को बढ़ावा देने और नस्ल सुधार कार्यक्रम में इजाफा करने के ¶िए नाबार्ड ने लुपिन को अम्ब्रेला प्रोजेक्ट फॉर नेचुरल रिसोर्स मैनेजमेंट (यूपीएनआरएम) परियोजना भी स्वीकृत की है। इसमें वैज्ञानिक विधि से पशुपालन करने, पशु नस्ल सुधार कार्यक्रम संचा¶ित करने, बीमार पशुओं का इलाज करने, गोबर गैस संयंत्र स्थापित कराने, घरों में धुंआ रहित चूल्हे बनाने आदि कार्य शामिल हैं।
स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल किस्मों का चयन और विकास ही बढ़ाएगा पशुपालन का मुनाफा सफलता की कहानी

धन-धान्य से पूर्ण करेगी धान की खेती


समूचे विश्व में करीब 160 मिfयन हैक्टेयर में धान की खेती होती है। इससे करीब 685 मि¶ियन टन चावल प्राप्त होता है। एशिया में चावल का 90 प्रतिशत उत्पादन और खपत दोनों है। भारत में करीब 44 मि¶ियन हैक्टेयर में चावल की खेती होती है। इससे गुजरे सा¶ करीब 100 मि¶ियन टन चावल का उत्पादन हुआ। चीन के बाद भारत चावल उत्पादन में विश्व में दूसरे नंबर पर है और एशियाई देशों की खाद्य जरूरत को पूरा करने में चावल का अहम योगदान है। देश के कुल अनाज उत्पादन में चावल का योगदान 40 प्रतिशत है। कृषि निर्यात में इसकी हिस्सेदारी करीब 25 फीसदी है। उत्पादकता 2.1 टन प्रति हैक्टेयर है जो अन्य देशों की 2.9 टन प्रति हैक्टेयर से काफी कम है। इसे बढ़ाने की अपार संभावनाएं हैं। दिलीप कुमार यादव सूखे के हा¶ात में कैसे हो धान की खेती धान ज¶ीय पौधा नहीं है ¶ेकिन किसान इसकी खेती ज¶ीय पौधों की तरह करते हैं। मस¶न खेतों में बेतहासा पानी भरे रखते हैं। कई बार यह पानी फस¶ में रोगों का कारण बनता है। इस समय मौसम बेरुखी दिखा रहा है। इन हा¶ात में 2.8 फीसदी मीठे पानी से कैसे गुजर बसर हो। मीठे पानी की उपयोगिता समझनी होगी और उसी के अनुरूप कृषि के तौर तरीके बद¶ने होंगे।
वर्तमान हा¶ात में कम पानी में धान की खेती के ¶िए किसानों को यह चाहिए कि वह 15-20 दिन की पौध की रोपाई ही कर दें। यदि पौध बड़ी हो गई है तो उसकी पत्तियों को दो से तीन इंच काट दें। क्योंकि इन पत्तियों में पत्ती ¶पेटक कीट के अंडे होते हैं। समूचे पौधे के रोपने पर पौधे की रोपाई करते ही फस¶ रोगग्रस्त हो जाती है।
विशेषज्ञ बताते हैं कि धान की फस¶ भी छह पानी में आसानी से हो सकती है। पूसा संस्थान के विशेषज्ञ डा़ सीवी सिंह बताते हैं कि यदि खेत में पानी लगाने का कोई साधन न हो और जमीन में दरारें पड़ जाएं तो निराई कराएं। इससे एक तो खरपतवार मारने के ¶िए छिड़की जाने वा¶ी दवा का खर्चा बचेगा। दूसरा जो उर्वरक खेत में डा¶ेंगे वह पौधे की जड़ों तक आसानी से पहुंचेगा और पौधों का अच्छा विकास होगा।
सूखे मौसम में धान के खेतों में यदि पानी ज्यादा भरा जाएगा तो उसमें रोग संक्रमण की संभावना ज्यादा रहेगी।।
इस बात की परवाह न करें कि जमीन सूख गई है। पौधे न सूखें इतनी नमी बनाए रखें। पह¶ी निराई पौध की रोपाई के 25 से 30 दिन के बाद करें और निराई के बाद खेत में उर्वरक डा¶कर हल्का पानी लगाएं। कम पानी में धान की फस¶ ¶ेने के ¶िए खेत में दो बार निराई करानी पड़ सकती है ¶ेकिन इसके परिणाम भी अन्य तरीकों से की गई खेती की तुलना में सार्थक होंगे।
धान की खेती ने किसानों की मा¶ी हा¶त में सुधार किया है ¶ेकिन इसके नतीजे आगामी पीढ़ी के ¶िए बड़े भयावह हो सकते हैं। अके¶े यूपी में धान का क्षेत्रफल बढ़ने से प्रदेश में 108 अति दोहित एवं क्रिटिकल क्षेत्र बढ़े हैं। एक कि¶ोग्राम धान 2500 से 3000 लीटर पानी से तैयार होता है।।
मस¶न करीब 700 ग्राम चावल पाने के ¶िए हमें इतने पानी की खपत करनी ही होती है।
श्री विधि है बेहतर विकल्प इस विधि को मेडागास्कर भी कहा जाता है। इसके ¶िए धान की पौध को आठ से 12 दिन की अवधि में खेत में रोप दिया जाता है। लाइन से लाइन और पौधे से पौधे की दूरी कम से कम 20 सेण्टीमीटर रखते हैं। इस विधि में पानी कम लगाना होता है। इस तकनीक से धान की खेती में जहां भूमि, श्रम, पूंजी और पानी कम लगता है , वहीं उत्पादन 300 प्रतिशत तक ज्यादा मिलता है।
इस पद्घति में प्रच¶ित किस्मों का ही उपयोग कर उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है।
कैरिबियन देश मेडागास्कर में 1983 में फादर हेनरी डी लाउ¶ेनी ने इस तकनीक का आविष्कार किया था। इधर उड़ीसा में इस विधि से किसान पह¶े से ही खेती करते रहे हैं। अब यूपी सहित कई राज्यों ने इस विधि को अपनाया तो है ¶ेकिन इसके प्रचार प्रसार पर कोई खास काम नहीं हुआ है। अब यह विधि 21 देशों में अपनाई जा रही है। भारत में इस विधि का उपयोग 2003 से शुरु हुआ। इसकी खूबी यह है कि इस विधि से खेती करने में पानी खेत में कम लगता है। पौधों में कल्ले ज्यादा बनते हैं। इसके कारण उत्पादन भी ज्यादा मिलता है। खास बात यह है कि धान में कम पानी लगने से उमस कम बनती है। इसके च¶ते रोग भी कम लगते हैं।
गेहूं की तरह करें धान की बुवाई 

अन्तर्राष्ट्रीय गेहूं एवं मक्का अनुसंधान संस्थान मैक्सिको के दक्षिण एशिया कॉर्डिनेटर डा0 राजगुप्ता की मानें तो सीधी बुवाई बहुत कारगर है। वह मानते हैं कि इस विधि में किसान गेहूं बोने वा¶ी मशीन उपयोग कर सकते हैं। इसके ¶िए उन्हें बीज वा¶े बॉक्स में खाद और खाद वा¶े बॉक्स में बीज डा¶ना होता है। वह कहते हैं कि खेत का प¶ेवा करके धान गेहूं की तरह बोने के बाद खेत में तत्का¶ उगने से रोकने वा¶े खरपतवारनाशी पेंडामेथा¶िन दवा का छिड़काव करना चाहिए। बुवाई से पूर्व धान को 10 घण्टे भिगो ¶ें। बाद में पानी से गेहूं की तर लगाएं। पानी खेत में केव¶ इतना दें कि जमीन में मोटी दरारें न बन जाएं। यह प्रयोग मथुरा जनपद के सैनवा गांव, अड़ींग के पूर्व प्रधान मुनीष स्वरूप एवं पंडित दीनदया¶ उपाध्याय पशु चिकित्सा विज्ञान विश्वविद्या¶य एवं गौ अनुसंधान संस्थान के माधुरीकुण्ड कृषि फॉर्म पर सार्थक सिद्घ हुआ है। फॉर्म प्रभारी एसके शर्मा ने बताया कि रोग कम लगते हैं और पानी की भी कम आवश्यकता होती है। सेनवा के किसान देव शर्मा व अड़ींग के किसान मुनीष ने बातया कि मशीन से धान की खेती करने से करीब आठ हजार रुपए प्रति हैक्टेयर की लागत बच जाती है।
. चावल में उच्च गुणवत्ता का फाइवर एवं प्रोटीन पाया जाता है।
. विश्व में ख्याति पाने वा¶े बासमती चावल का उत्पादन केव¶ पाकिस्तान और भारत में ही होता है।
. चावल की भूसी में पर्याप्त मात्रा में विटामिन बी 6, आयरन, फास्फोरस, मैगAीशियम, पोटेशियम पाया जाता है।
. चावल के प्रोटीन का प्रयोग बा¶ों की मोटाई बढ़ाने वा¶े उत्पादों एवं सौन्दर्य प्रसाधनों में किया जाता है।
. चावल में को¶ेस्ट्रॉ¶ नहीं होता और वसा की मात्रा बहुत कम होती है।

कृषि टिप्स करें खस की खेती


खस में लागत कम और मुनाफा ज्यादा होता है। इसकी खेती के लिए खराब मिट्टी भी काम कर जाती है। इसके तेल की बाजार में अच्छी कीमत मिलती है। इसके लिए ज्यादा तेल देने वाली किस्म की नर्सरी डालनी चाहिए।
नर्सरी तैयार करने के लिए सिमवृद्धि जैसी किस्म का चयन करें। सीमैप लखनऊ से इसके पौधे भी बेहद सस्ती दर पर दिए जाते हैं। खेत की ठीक से जुताई करने के बाद प्रति एकड़ की दर से पांच कुंतल जिप्सम मिला देनी चाहिए। खेत में पौधे लगाने के दो दिन बाद पौधों की सिंचाई कर देनी चाहिए। बरसात के मौसम को छोड़कर हर 15-20 दिन में सिंचाई करते रहनी चाहिए। रोपाई के समय डीएपी, यूनिया व पोटाश आवश्क रूप से जुताई के दौरान मिला दें। इसकी खेती ज्यादा पानी वाले इलाकों में भी की जा सकती है। जल भराव वाले इलाकों में इसकी खेती करने पर इसकी जड़ों से तेल की मात्रा ज्यादा मिलती है। अच्छा तेल पाने के लिए इसकी जड़ों की खुदाई तेजी से करने वाली मशीन से करानी चाहिए। खस के तेल की बाजार में अच्छी मांग है लेकिन किसानों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इसकी प्रोसेसिंग यूनिट उनसे कितनी दूरी पर है।

प्रसव के पूर्व और बाद में कैसे करें पशु सुरक्षा


पशु के प्रसव को लेकर किसान ज्यादा चिंतित नहीं होते। उनकी चिंता पशु के बच्चा देने के बाद शुरू होती है। इसका अहम कारण यह है कि किसान को पशु चिकित्सक ग्रामीण अंचल में बेहद कम मिल पाते हैं।
यदि किसान प्रसव से पूर्व, ब्याने के समय और बाद की स्थिति में ठीक से देखभाल करें तो उनके पशु के जीवन काल के सभी गर्भकाल ठीक ठाक गुजरेंगे।
गर्भावस्था के अंतिम तीन महीनों में पशु के शरीर की आवश्यकता बढ़ जाती है। उसे अपने और पेट में पल रहे जीव के पोषण के लिए पर्याप्त दाना और हरा चारा देना चाहिए। स्वस्थ बच्चे के लिए डेढ़ से दो किलोग्राम ठोस दाना अतिरिक्त देना चाहिए। इसके अलावा पशु की पाचन क्रिया ठीक रखने के लिए विटामिन ए आवश्यक होता है। इसकी पूर्ति हरे चारे से की जा सकती है। गर्भकाल के अन्तिम तीन महीनों में पशु को कैल्शियम नहीं देना चाहिए। यह उसे गर्भकाल के प्ररंभ में खिलाना चाहिए। ब्याने से 48 घण्टे पूर्व कैल्शियम देने से दुग्ध ज्वर जैसी बीमारी होने का खतरा कम हो जाता है। ब्याने से एक दिन पहले पशु के जननांग से द्रव्य का श्राव होने लगता है। यह स्थिति उत्पन्न होने के बाद रात और दिन में हर घण्टे बाद पशु बगैर छेड़े निगरानी में रखना चाहिए। ब्याने से पूर्व जननांग से एक द्रव्य से भरा बुलबुला निकलता है जो धीरे-धीरे बड़ा होता है और अंत में फट जाता है। इसमें से ही बच्चे के पैर के खुर निकलते हैं। इसके बाद अगले पैरों के घुटनों के बीच सिर दिखाई देता है।
कभी-कभी अपने आप बच्चा निकल आता है और कई बार पशु कमजोर होने पर बच्चे को बाहर निकालने में परेशानी होती है। परेशानी वाली स्थिति में तत्काल कुशल पशु चिकित्सक से संपर्क करना चाहिए। ब्याने से तीन चार दिन पूर्व से ही पशु को अलग बाड़े में बांधना चाहिए। एक हफ्ते पहले से विटामिन डी-3 देना चाहिए।
ब्याने के बाद जेर गिरने का इंतजार करना चाहिए। जेर आठ से 12 घण्टे में गिर जाता है। इसे गिरते ही उठाकर गड्ढ़े में दबा देना चाहिए। 12 घण्टे में भी जेर न गिरे तो उसे पशु चिकित्सक से संपर्क करके निकलवाना चाहिए। ब्याने के तुरंत बाद सबसे पहले बच्चे को दूध पिलाना चाहिए।
पशु का दूध ब्याने के 15-20 मिनट बाद निकालना चाहिए। पहला दूध एकबार में नहीं निकालना चाहिए। इससे पशु के शरीर में कैल्शियम की कमी हो जाती है। बच्चा देने के बाद पशु को काफी थकान हो जाती है। इसलिए पशु को उबले हुए चावल, उबला बाजरा, तेल मिलाए हुए गेहूं, गुड़, अजवायन, मेथी, अदरक आदि देनी चाहिए। पशु को गर्म पानी नहीं देना चाहिए।
जेर देने के बाद यदि ठंड के दिन हों तो ताजा पानी से नहलाना चाहिए। ब्याने के 45 से 60 दिन बाद पशु गर्मी में आता है। उसके गर्मी में आने का ध्यान भी रखना चाहिए।
यदि ऐसा नहीं होता तो पशु चिकित्सक से संपर्क करना चहिए।
डा. गुंजन बघेल, वेटरिनरी विश्वविद्यालय मथुरा

धान की खास किस्में जो पूरे देश में प्रच¶ित है


1-पूसा बासमती छह, 1401 किस्म पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखण्ड के ¶िए अनुमोदित की गई है। सिंचित अवस्था में बुवाई के बाद इस किस्म का उत्पादन 50 से 55 कुंतल प्रति हैक्टेयर मिलता है। धान की यह मध्यम बौनी किस्म है जो पकने पर गिरती नहीं है। दानों की समानता व पकने की गुणवत्ता के हिसाब से यह किस्म पूसा बासमती 1121 से बहुत अच्छी है।
इसका दाना पकने पर एक समान रहता है। इसमें बहुत अच्छी सुगंध आती है। इसके पकने की अवधि 150 से 155 दिन ¶ेती है।
2-उन्न्त पूसा बासमती एक, 1460 किस्म पंजाब, हरियाणा, यूपी और उत्तराखण्ड के ¶िए ही संस्तुत है। सिंचित अवस्था में उपज 55 से 60 कुंतल मिलती है। इस किस्म में जीवाणु पर्ण झुलसा प्रतिरोधक क्षमता को समाहित करके एक्स ए 13 व एक्स ए 21 जीनों को परिमिडीकरण करके तथा पूसा बासमती एक के साथ गुण सुरक्षित रखते हुए विकसित की गई है। यह किस्म 135 से 140 दिन में पक कर तैयार होती है। पकाने में इसके दानों की गुणवत्ता बहुत अच्छी है।
3-पूसा सुगन्ध पांच, 2511 किस्म दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और जम्मू के ¶िए संस्तुत है। सिंचित अवस्था में रोपाई पर इसकी उपज 55 से 60 कुंतल तक होती है।
यह अर्ध बौनी उच्च उपज देने वा¶ी सुगन्धित चावल की किस्म उत्तर भारत में बहुफस¶ीय पद्घति के ¶िए उपयुक्त है। इस किस्म का दाना अच्छी सुगन्ध वा¶ा एवं अधिक लम्बा होता है। यह किस्म झड़ने के प्रति सहिष्णु है। यह गा¶ मिज, भूरे धब्बे रोग के ¶िए प्रतिरोधी भी है। पत्ती ¶पेटक एवं ब्लास्ट के ¶िए मध्यम प्रतिरोधी है। यह 120 से 25 दिन में पक जाती है।
4-पूसा बासमती या सुगंध चार, 1121 बासमती धान उगाने वा¶े सभी क्षेत्रों के ¶िए उपयुक्त किस्म है। उपज 40 से 45 कुंतल प्रति हैक्टेयर आती है। यह तरावड़ी बासमती से एक पखवाड़ा अगेती है। इसका दाना लम्बा होता है। पकने के बाद करीब 20 मिली मीटर लम्बा हो जाता है। इसका विदेशों को सर्वाधिक निर्यात होता है।
5-पूसा सुगंध तीन, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश के ¶िए है। उपज 60 कुंतल तक मिलती है। अर्धबौनी इस किस्म में बासमती के सभी गुण हैं। दाना खाने में मुलायम, सुगंधित व स्वाद में अच्छा होता है। यह किस्म पकने में मध्यम अगेती है।
125 दिन में पक जाती है।
6-पूसा सुगंध दो, भी उपरोक्त सभी राज्यों में बोई जाती है। सिंचित अवस्था में उपज 55 कुंतल तक आती है। यह धान की अर्ध बौनी अधिक उपज देने वा¶ी किस्म है। मध्यम अगेती यह किस्म 120 से 125 दिन में पकती है।
7-पूसा बासमती एक, उपरोक्त सभी राज्यों के ¶िए है। उपज 50 से 55 कुंतल प्रति हैक्टेयर तक आती है। यह बासमती धान की मध्यम बौनी किस्म है। बासमती चावल के राष्ट्रीय निर्यात में इस किस्म की 50 प्रतिशत हिस्सेदारी है। यह 130 से 135 दिन में पकती है।
8-पूसा 44, किस्म कर्नाटक, केरल, पंजाब, हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश में बोई जाती है। यह बगैर सुगंध वा¶ी किस्म है। सिंचित अवस्था में इसकी उपज 70 से 80 कुंतल तक आती है। बौनी प्रजाति की इस किस्म को पकने में 140 से 145 दिन का समय लगता है। मिलीकरण के ¶िए इसका दाना बहुत अच्छा है। यह मशीनों से कटाई एवं निकासी के दौरान बेहद कम टूटता है।
9-पीआरएच 10, संकर धान है।
पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड में बोई जाती है। उपज 65 कुंतल तक होती है।
यह बासमती गुणों वा¶ी विश्व की पह¶ी संकर किस्म है। पकने में 110 से 115 दिन ¶ेती है। यह कम पानी में तैयार हो जाती है।
10-सरयू 52 मोटा चावल होता है।
150 दिन में पकने वा¶ी इस किस्म से 60 से 70 मन प्रति एकड़ की उपज मिलती है। नरेन्द्र देव कृषि विश्वविद्या¶य फैजाबाद की यह किस्म काफी ¶ोकप्रिय है।
नरेन्द्र 359 किस्म भी मोटे में है। 140 दिन में पकती है। 90 मन प्रति एकड़ तक उपज मिलती है।
11-एचकेआर 47, 126, 127 एचएयू की अच्छी किस्में हैं।
सुगंध रहित मोटे चावल वा¶ी इन किस्मों को भी किसान लगाते आ रहे हैं।
12-केन्द्रीय मृदा लवणता संस्थान करना¶, सीएसआर 32 व 36 किस्म खारी पानी वा¶े इलाकों और सै¶ाइन इलाकों के ¶िए उपयुक्त हैं। उपज 60 मन प्रति एकड़ की मिलती है। यह किस्म 130 से 135 दिन में पकती हैं।
धान की खेती का समय आ गया है। इसकी खेती के लिए अभी नर्सरी डालने की तैयारी होने लगी है लेकिन इससे पहले किसानों को यह जानना जरूरी है कि उनके यहां पानी की उपलब्धता कैसी है और उसके लिए कौन सी किस्में कारगर होंगी।

मधुमक्खी मारे डंक तो क्या करें


मधुमक्खी पालन अच्छा कारोबार है लेकिन इसमें कई सावधानियां भी जरूरी हैं। इस समय ज्यादातर इलाकों में किसी फसल पर फूल न होने के कारण बी कीपर उन्हें चीनी खिलाकर जिंदा रखे हुए हैं। गर्मी से परेशान और खाने की तलाश में जुटी मक्खी बेहद हमला करती है। ऐसे में यदि मक्खी काटे तो सबसे पहले उसका डंक निकालना चाहिए। यदि मक्खी के काटते ही नाखूनों की मदद से डंक निकल गया तो डंक में छिपी जहर की थैली नहीं फट पाएगी और इससे उत्पन्न होने वाले दर्द से बचा जा सकेगा। डंक वाले स्थान पर चूना, साबुन एवं स्प्रिट, वैसलीन आदि लगानी चाहिए। मुंह और नाक के पास मक्खी के काटने पर सांस लेने में तकलीफ हो सकती है। ऐसे में आमतौर पर चिकित्सक मिथाइल प्रिडिंसोलोन सोडियम सक्सीनेट जैसी कुछ दवाएं देते हैं। ऐसे में तत्काल चिकित्सक से संपर्क करना चाहिए।

गर्मियों में पशुओं को अफरा से बचाएं


गर्मियों में मनुष्य हो या पशु सभी को गरिष्ठ भोजन दिक्कत देता है। बिनौले जैसे तेलीय आहार अफरा का कारण बन सकते हैं। पशुओं को गर्मी की संक्रमित चरी भी मौत के मुहाने तक पहुंचा सकती है।
अफरा अत्यधिक मात्रा में हरा या सूखा चारा एवं दाना देने से होता है।
कई दफा कीड़े व जहरीले पदार्थ खाने से भी अफरा होने का डर रहता है।
विशेषकर गर्मी में अपच होना इस लिए आसान है क्योंकि इन दिनों में पाचन तंत्र कमजोर पड़ जाता है। पशु को रहने के लिए उचित तापमान नहीं मिलता। शुद्ध पानी की भी दिक्कत रहती है। तालाबों का पानी भी सूखकर कम रह जाता है। इससे ज्यादा संक्रमण होने की संभावना रहती है। अफरा होने से पशु को सांस ¶ेने में कठिनाई होने लगती है और पेट का आकार बढ़ जाता है। उठने व च¶ने में कठिनाई होती है और पशु खाना छोड़ देता है।
अंत में पशु की मृत्यु भी हो सकती है।
उपचार के लिए सबसे पहले आधा लीटर खाद्य तेल पिलायें।
जानवर को इधर-उधर घुमायें। पशु के बांये तरफ के पेट को पतली सुई से पंच कर दें। खराब चारा न दें। दूषित खाना पशुओं को ना डा¶ें भूसे की पर्याप्त मात्रा खाने को देते रहे।

टमाटर की लाली देगी खुशहाली


भरतपुर-हिण्डौन मार्ग पर बयाना कस्बे से मात्र 4 किलोमीटर दूर बसा ऐतिहासिक गांव सिकन्दरा।
यहां प्रतिदिन प्रात: के समय 5-6 वाहन टमाटर लेकर शहरों की ओर दौड़ते नजर आते हैं।
औसतन 30 क्ंिवटल टमाटर इस छोटे से गांव से मंडी में बिक्री के लिए जाते हैं। इससे प्रतिदिन ग्रामीणों को करीब 25 हजार रुपये की आय होती है। यह सिलसिला नवम्बर माह से शुरु होकर मार्च तक चलता है। कुछ यही हाल मथुरा जनपद के गोवर्धन ब्लाक स्थित गांव बोरपा का है। कभी दूध का धंधा करने वाले लोग अब गर्मियों में टमाटर की खेती कर अच्छा पैसा कमा रहे हैं।
मुगलकाल में बसा सिकन्दरा गांव करीब 500 परिवारों की बस्ती है लेकिन जनसंख्या वृद्घि, कृषि भूमि का निरन्तर बंटवारा होने, कृषि लागत बढ़ने से ग्रामीणों का ध्यान परम्परागत खेती से हटने लगा। गांव के बनैसिंह, लोकेन्द्र व बिजेन्द्रसिंह ने गेहूं, सरसों व अन्य परंपरागत् खेती के स्थान पर सब्जीवा¶ी फस¶ों का काम शुरू किया। यद्यपि इन लोगों के पास नवीन तकनीक व उन्नत बीजों का अभाव था जिसकी वजह से इन्हें कोई खास मुनाफा नहीं हुआ। बनैसिंह सैनी बताते है कि उन्होंने टमाटर की कंचन नामक किस्म की बुवाई की लेकिन माथाबंदी का रोग लग जाने से उत्पादन इतना कम हुआ कि लागत भी वसूल नहीं हो पाई। इसके अलावा सर्दी के कारण कुछ फसल खराब भी हो गई। ऐसी स्थिति में गांव के करीब दो दजर्न किसानों ने टमाटर उत्पादन बंद कर दिया और इसके स्थान पर गोभी, मिर्च, बैगन आदि सब्जी वाली फसलें लगाना शुरू किया, लेकिन इन फस¶ों में मेहनत, लागत अधिक व मुनाफा कम मिल पाता।
करीब 8 वर्ष पूर्व संस्था लुपिन ह्यूमैन वैलफेयर एण्ड रिसर्च फाउण्डेशन ने सिकन्दरा गांव को उसके सर्वागीण विकास के लिए गोद लिया। संस्था के कृषि वैज्ञानिकों को सब्जी उत्पादक किसानों ने अपनी समस्या बताई। इसके बाद संस्था ने उन्हें सहयोग करना शुरू किया ।
आज इस गांव के किसान टमाटर की खेती के विशेषज्ञ हो गए हैं।
टमाटर उत्पादक किसान एक हैक्टेयर से करीब डेढ़ लाख रुपये का मुनाफा लेने लगे हैं।
इसके बाद भी किसानों ने मुनाफा बढ़ाने के ¶िए अन्य प्रयोग किए।
टमाटर उत्पादक किसानों ने टमाटर की फस¶ से अधिक मुनाफा ¶ेने के लिए रासायनिक खाद के स्थान पर वर्मी कम्पोस्ट खाद का प्रयोग करना शुरू किया, जिससे उत्पादन बढ़ गया। दोमट मिट्टी व मीठा पानी होने के कारण किसानों को टमाटर व अन्य सब्जियों की भरपूर पैदावर मिलती है। इसके अलावा टमाटर विक्रय के लिए बयाना, हिंडौन, सूरौठ, भरतपुर, आगरा व मथुरा की मंडियां अधिक दूर नहीं होने के कारण इन्हें ज्यादा परेशानी नहीं होती।
कभी-कभी भाव नीचे च¶े जाने से दिल्ली या बड़े शहरों में ले जाना पड़ता है। फसल ज्यादा होने पर न तो वाहन का झंझट होता है और ना ही ले जाने का। इसी तरह एक दशक पूर्व तक दूध का कारोबार करने वाले मथुरा जनपद के बोरपा गांव के किसानों ने टमाटर की खेती को अपनाया।
उनकी प्रेरणा का स्नेत बने उनके निकट के गांव अहमल कलां के किसान रमेश चौधरी। उन्होंने 1999 में हिन्दुस्तान में आए टमाटर के पहले हाइब्रिड बीज से ही खेती की शुरुआत की और अपनी एक एकड़ जमीन में ही टमाटर की खेती से एक दजर्न लोगों के परिवार को खुशहाल जीवन दिया है। उनके अनुभव का लाभ बोरपा के किसानों ने लिया। आज यहां के दजर्नों किसान हर साल टमाटर की खेती करते हैं। अपनी इस सफलता की लालिमा से किसान अभिभूत हैं।
बोरपा गांव के किसानों ने टमाटर की खेती को अपनाया। उनकी प्रेरणा का स्नेत बने उनके निकट के गांव अहमल कलां के किसान रमेश चौधरी। उन्होंने 1999 में हिन्दुस्तान में आए टमाटर के पहले हाइब्रिड बीज से ही खेती की शुरुआत की और अपनी एक एकड़ जमीन में ही टमाटर की खेती से करीब एक दजर्न लोगों के परिवार को खुशहाल जीवन दिया है।
 

सीजन का फल आम


आम सेहत का खजाना लेकर आता है। तपती धूप और बीमारियों के इस सीजन में आम हमारी सेहत को दुरुस्त रखने का एक प्राकृतिक तोहफा है। हमारे देश में आम की तकरीबन एक हजार किस्में मौजूद हैं और पूरी दुनिया में लोग लखनऊ से लेकर दक्षिण तक आम की खास किस्मों के दीवाने हैं।
विटामिन ए, फाइवर आदि तत्वों से भरपूर इस फल का स्वाद और पौष्टिक तत्वों का कोई मुकाबला नहीं। आम को हर अवस्था में खाया जा सकता है। कच्चे आम का अचार और पना बेहद लाभकारी होता है। आम का पना शरीर में पानी, सोडियम क्लोराइड व आयरन की कमी नहीं होने देता। विटामिन बी और नियासिन जैसे तत्व इसे पौष्टिक बनाते हैं। इसमें पाया जाने वाला विटामिन सी गर्मी से जुड़ी कई बीमारियों से बचाने में कारगर दवा का काम करता है।

सटोरियों की गिरफ्त में किसान


क्रिकेट का सट्टा इस समय छाया हुआ है लेकिन खेती किसानी तो पूरी तरह से सटोरियों के कब्जे में है। इससे किसानों का कतई भला नहीं हो रहा है। यही कारण है कि वह खेती छोड़ जमीन बेचने की होड़ में शामिल हो रहे हैं। वायदा कारोबार किसानों की जिस मण्डियों में आने के बाद शुरू होता है, किसान उससे बेखबर होता है। मानसून, शेयर बाजार और चुनाव ही नहीं खेती के सभी उत्पाद अब सटोरियों की गिरफ्त में पहुंच चुके हैं। मल्टी कमोडिटी एक्सचेन्ज और नेशनल कमोडिटी एक्सचेन्ज के माध्यम से हर दिन इस तरह का सट्टा लगाने वालों की तादात बहुत बढ़ी है।
किसान खेत में पसीना बहा रहा होता है और ब्रोकरों के एसी केबिनों में बैठकर लोग उसकी किस्मत का निर्धारण कर रहे होते हैं।
इस खेल से उपभोक्ता तक चीजों के पहुंचते- पहुंचते कीमतों में काफी इजाफा हो जाता है।
मसलन किसान को मिली कीमत और उपभोक्ता द्वारा दी गई कीमत के बीच मोटी खाई तैयार हो जाती है।
इस तरह के कारोबार में लोग बल्क में घर बैठे चीजें खरीद लेते हैं। एक निर्धारित समय तक खरीदी गई वस्तु उनके गोदाम में तो नहीं आती लेकिन बाजार में उसकी मौजूदगी कम हो जाती है। उस वस्तु का मालिकाना हक एक धनाड्य के हाथों में होता है। थोड़ा मुनाफा मिलते ही वह किसी और को वह वस्तु उतार देता है। वायदा कारोबार में मोटा पैसा लगाने वाले लोग कई चीजों को प्रभावित करते हैं। मौसम की भविष्यवाणियों से लेकर कई तरह के पूर्वानुमान बाजार की तेजी-मंदी को प्रभावित करते हैं।
गुजरे रबी सीजन में सरकार गेहूं की बंपर उपज की घोषणा कर रही थी लेकिन एमसीएक्स और एनसीएक्स के अलावा स्थानीय स्तर पर भरसार करने वाले कारोबारी सरकारी आंकड़ों से ऊपर सोचकर चल रहे थे। सरकारें गेहूं खरीद में पिछड़ रही थीं। उपज में 15 से 20 फीसदी की गिरावट हुई और एक ओर गेहूं का निर्यात चलता रहा। इस तरह के कारोबारों में हाथ आजमाने वाले लोगों के पैंतरे सरकारी तंत्र के इंतजामों को धता बताने से नहीं रुकते तो सीधे-साधे किसानों को इनके चंगुल से कौन बचाए। गुजरे साल कारोबारियों ने देशभर में धान किसान को उनकी फसल का वाजिव मूल्य नहीं दिया। मसलन वर्ष 2011 की तुलना में 2012 में धान की कीमतें जानबूझकर गिरा दी गईं और सरकारी एजेंसियों के पास इसका कोई समाधान नहीं था। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के उप महानिदेशक बीज सपन दत्ता से जब इस बावत पूछा गया तो उनका कहना था कि इस तरह का मामला उनके संज्ञान में नहीं है। देश के किसान की फसल की हर साल बढ़ रही लागत के हिसाब से सरकारें समर्थन मूल्य बढ़ाती हैं लेकिन कारोबारियों ने एक वर्ष बाद पूर्व वर्ष के मुकाबले कीमतें गिरा दीं और सरकारी तंत्र चुप रहा।
खेती किसानी से प्राप्त होने वाले उत्पाद अब मल्टी कमोडिटी एक्सचेन्ज और नेशनल कमोडिटी एक्सचेन्ज के माध्यम से सटोरियों की गिरफ्त में हैं। किसान को उसकी फसल का वाजिव मूल्य नहीं मिल पाता है। कुल मिलाकर किसान पूरी तरह से सटोरियों के कब्जे में हो जाते हैं। सरकारी तंत्र चुप है। इस खेल पर नजर डाल रही है दिलीप कुमार यादव की यह रिपोर्ट।
किसानों के साथ महत्वपूर्ण मोटा कारोबार करने वाले सब्जी आढ़तियों को लेकर कभी आयकर विभाग की बड़ी छापेमारी नहीं होती। इसके चलते आड़तिये बगैर आय का विवरण दर्शाए बही खातों में ही करोड़ों के वारे-न्यारे करते रहते हैं। सब्जी मण्डी में किसान के माल से धन कमाने वाले आड़तियों द्वारा किसानों को कोई सहूलियत नहीं दी जाती। इसके विपरीत वह किसानों की सरलता का लाभ उठाते हैं।
वह दिल्ली और निकट की बड़ी मण्डियों में जिंसों की आवक का फोन से पता रखते हैं और मांग के अनुरूप किसानों के माल की जमाखोरी कर बड़ी मण्डियों को बढ़ा देते हैं। कई मामलों में तो वह कारोबारियों की तरह अपने एजेंट छोड़कर किसानों के माल को सस्ते में खरीद लेते हैं और बाद में उन्हें बड़ी मण्डियों को ऊंचे दाम पर बेचते हैं। इस प्रकिया में चंद मिनटों या घण्टों का अंतर होता है। नगदी फसल में भी किसान लुटता है और कारोबारी मालामाल होते हैं।
आयकर विभाग की नजर नहीं

फॉस्फोरस की कमी पूरा करेगा जीन अनुसंधान


विश्व के उर्वरकों का उपयोग 19 प्रतिशत अकेले भारत में होता है। भारत के मृदा सव्रेक्षण अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि केवल 1.9 प्रतिशत मिट्टी में फॉस्फोरस का उच्च स्तर है। बाकी जगह इसकी मांग और आवश्यकता दोनों हैं। पौध की बढ़वार में इस तत्व का अहम योगदान है। अभी तक विश्व के कुछ देशों में मौजूद फॉस्फोरस चट्टानों से इसकी पूर्ति हो रही है लेकिन आने वाले कल में इसकी कमी होनी तय है। भारत में हर फसल सीजन में फॉस्फोरस मुख्य तत्व वाले डीएपी की कमी होने लगती है।
वैज्ञानिकों ने धान की पारम्परिक किस्म कसलथ से फॉस्फोरस स्टारवेशिन टॉलरेंट जीन की पहचान की है।
इस जीन के कारण धान की फसल में कम फॉस्फोरस से ही अच्छी उपज मिलती है। इस जीन की मदद से अन्य किस्मों में फॉस्फोरस की खपत में कमी का काम आगे बढ़ रहा है। यह किसानों के लिए शुभ संकेत है। विश्व के कई देशों में इस तरह के प्रयोग हो रहे हैं। भारतीय मौसम में इस तरह के जीन से उपज में 50 फीसदी तक इजाफा होने की संभावना जताई जा रही है।

ज्यादा पैसा देगी बरसाती भिंडी


भिंडी की खेती देश में बहुतायत में होती है। तोड़ने की दिक्कत को छोड़ दें तो भिंडी अच्छी आय का साधन बनती है। इसकी कई किस्में विकसित हो चुकी हैं। काशी क्रांति किस्म पीत शिरा रोग अवरोधी है। इसके अलावा इस किस्म में पत्ती मरोड़ एवं विषाणु जनित रोग भी नहीं लगते। गर्मी में पैदावार 125 कुंतल एवं बरसात में 175 कुंतल प्रति हैक्टेयर होती है। काशी प्रगति किस्म भी पीतशिरा, मोजेक आदि रोग अवरोधी है। इसमें फल 14 सेंटीमीटर तक लम्बा हो जाता है। काशी विभूति किस्म बौनी होती है। इसे तोड़ने में आसानी रहती है।
परभनी क्रांति किस्म भी कई रोग अवरोधी है। इसमें फल थोड़ी देरी से लगते हैं। इसमे फल पर पांच धारियां होती हैं। उपज थोड़ी कम होती है लेकिन यह स्वाद से भरपूर है। काशी सतधारी किस्म में 42 दिन की अवस्था में ही फल छंटने लगता है। उत्तर प्रदेश के सभी इलाकों में यह किस्में बोए जाने के लिए उपयुक्त हैं। केवल कम तापमान वाले पहाड़ी इलाकों में इनसे कम उपज मिलती है। भिंडी बाजार में चल भी रही है और इस समय भी बरसात के सीजन के लिए भिंडी लगाई जा रही है। भिंडी की जेकेओएच 152, एसओएच 152, एनबीएच 180, एचबीएच 142 आदि शंकर किस्में किसानों में काफी लोकप्रिय हो रही हैं।

लगाएं परंपरागत काला नमक धान


धान की एक से एक बेहतरीन किस्म बाजार में आ चुकी हैं, लेकिन परंपरागत किस्मों की गुणवत्ता का आज भी कोई सानी नहीं है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में बोई जाने वाली धान की एक किस्म काला नमक खाने में बहुत स्वादिष्ट है।
किसानों को अपने और अपने परिवार के खाने के लिए इस तरह की किस्मों को भी लगाना चाहिए। अन्यथा परंपरागत किस्में खत्म हो जाएंगी। वर्तमान में काला नमक का शुद्ध बीज हर जगह नहीं मिलता।
इसके भी कई कारण हैं। परंपरागत किस्मों की उपज कम मिलती है और फसल आने पर हर जगह कारोबारी कम उत्पाद की खरीद भी उचित मूल्य पर नहीं करते। परंपरागत किस्मों का उत्पादन भले ही कम रहता हो, लेकिन इनकी गुणवत्ता के चलते अच्छी कीमत उपज की भरपाई कर देती हैं।
काला नमक लम्बी अवधि की प्रकाश संवेदी किस्म है। यह 145 दिन में पककर तैयार होती है। इसका पौधा डेढ़ मीटर तक लम्बा हो जाता है। इस किस्म को किसानों को थोड़ा अगेती लगाना चाहिए ताकि वह अन्य कम समय में पकने वाली किस्मों के साथ ही पक जाए अन्यथा जगली पशुओं के हमले से फसल बर्वाद हो जाती है।
इसकी सुगंध के चलते पशु दूर से ही खिंचे चले आते हैं। इसका धान देखने में काला होता है, लेकिन अंदर से चावल सफेद निकलता है।
इतना ही नहीं पतला छिलका होने के कारण धान से चावल भी करीब 70 प्रतिशत निकलता है। प्रति हैक्टेयर उपज करीब 30 कुंतल मिलती है। इसका बीज पॉर्टिसिपेटरी रूरल डेवलपमेंट फाउण्डेशन गोरखपुर एवं राष्ट्रीय बीज निगम से प्राप्त किया जा सकता है।
खाने में स्वादिष्ट एवं पौष्टिक होने के साथ यह किस्म बेहद सुपाच्य होती है। इस किस्म का चावल खाने के बाद पेट में भारीपन नहीं होता।

किस्म संरक्षक किसानों को मिलते हैं पुरस्कार


दिलीप कुमार यादव
पारंपरिक किस्मों के संरक्षण और सलेक्शन ब्रीडिंग के आधार पर किसानों द्वारा भी फसलों की सैकड़ों किस्मों का संरक्षण और विकास किया जा रहा है। इस तरह के कार्य में रत किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए पौध किस्म और कृषक अधिकार संरक्षण प्राधिकरण द्वारा पुरस्कृत किया जाता है। इन किस्मों का पंजीकरण भी वैज्ञानिकों की तरह पीपीवी एफआर द्वारा किया जा रहा है। अनूठे प्रयोग कर रहे किसान इस प्राधिकरण के माध्यम से अपने अनुसंधान को सुंरक्षित रखने के साथ सरकारी लाइसेंस पाने के अधिकारी भी हो जाते हैं।
रजिस्ट्रार जर्नल आरसी अग्रवाल ने बताया कि प्रजनकों को किस्म उत्पन्न करने, बेचने, विपणन करने, वितरित करने, आयात या निर्यात करने का एकमात्र अधिकार प्राप्त है। प्रजनक को पंजीकरण के लिए आवेदन दाखिल करने और प्राधिकरण द्वारा अंतिम निर्णय लेने के बीच की अवधि के दौरान किसी भी तीसरे पक्ष द्वारा किए गए किसी भी गलत कार्य के विरुद्घ उसकी किस्म की अनंतिम सुरक्षा का भी अधिकार है।
अनुसंधानकर्ता अन्य किस्म विकसित करने के लिए प्रयोग या अनुसंधान हेतु किस्म का उपयोग कर सकता है।
किस्मों के विकास और संरक्षण का लाभ एक व्यक्ति और समूह दोनों को प्रदान किया जाता है। धारा 41 के अंतर्गत कोई भी व्यक्ति किसी ग्राम समुदाय की ओर से क्षतिपूर्ति का दावा कर सकता है, बशर्ते कि गांव या स्थानीय समुदाय में पीपीवी और एफआर अधिनियम, 2001 के अंतर्गत पंजीकृत की गई किसी किस्म के विकास में उल्लेखनीय रूप से योगदान किया हो। क्षतिपूर्ति की राशि का निर्धारण प्राधिकरण द्वारा किया जाएगा और राशि राष्ट्रीय जीन निधि में जमा की जाएगी।
कृषकों के अधिकार :- अधिनियम के अंतर्गत कृषक को इस प्रकार परिभाषित किया गया है।
‘कोई भी वह व्यक्ति जो फसलें उगाता है और स्वयं भूमि पर खेती करता है; खेती का प्रत्यक्ष पर्यवेक्षण करते हुए फसलें उगाता है या किसी अन्य व्यक्ति की भूमि पर फसलें उगाता है; अलग-अलग या संयुक्त रूप से फस¶ प्रजातियों को संरक्षित और परिरक्षित करता है या किसी अन्य व्यक्ति के साथ किसी वन्य प्रजाति या परंपरागत किस्मों को संरक्षित व परिरक्षित करता है या चयन के माध्यम से ऐसी वन्य प्रजातियों या परंपरागत किस्मों का मूल्यवर्धन करता है और उनके उपयोगी गुणों की पहचान करता है’।
बीज पर कृषकों का अधिकार :- अपनी फसलों से प्राप्त अपने बीज को बचाने व बुवाई, पुन: बुवाई, विनिमय और अन्य किसानों के साथ भागीदारी या बिक्री के ¶िए अपने बीज को बचाना। कृषक किस्म वह किस्म है जिसे किसानों ने अपने खेतों में विकसित किया है अथवा किसी किस्म की वह वन्य संबंधी या भू- प्रजाति जिसके बारे में किसानों को सामान्य सा ज्ञान है।
परंपरागत किस्मों के सबलीकरण का अधिकार :- कृषकों द्वारा विकसित नई किस्मों और परंपरागत किस्मों का पंजीकरण कराया जा सकता है। कृषकों की किस्म की सुरक्षा की अवधि वही है जो किसी नई किस्म की है।
कृषक किस्म का प्राधिकृतिकरण कोई भी वह व्यक्ति जो कृषक किस्म से अनिवार्य रूप से व्युत्पन्न किस्म के पंजीकरण के ¶िए आवेदन करता है उसे प्रजनक (कृषक) से प्राधिकार प्राप्त करना होगा और उस किसान-उन किसानों की सहमति लेनी होगी जिन्होंने किस्म के परिरक्षण या विकास में योगदान दिया है।
कृषकों की किस्मों के पंजीकरण के आवेदन दाखिल करने के लिए कोई शुल्क नहीं है और उन्हें इस संबंध में किसी कानूनी कार्रवाई पर लगने वा¶े शुल्क से भी छूट दी गई है।
कृषकों को ‘आवेदक द्वारा दाखिल किए जाने वा¶े उस ह¶फनामे से भी छूट है कि पंजीकृत कराई जाने वा¶ी किस्म में कोई ऐसा जीन या जीन क्रम नहीं है जिसमें निरवंश या टर्मिनेटर प्रौद्योगिकी शामिल हो’।
¶ाभ में भागीदारी : यदि किसी कृषक या आदिवासी समुदाय ने पूर्वजों के रूप में प्रयुक्त की गई किस्मों में कोई योगदान दिया है और उन किस्मों से नई किस्म का विकास हुआ है तो उस नई किस्म से अर्जित लाभ में उस समुदाय की समान भागीदारी होगी। लाभ का अंश राष्ट्रीय जीन निधि से पात्र व्यक्ति, समुदाय या संस्था को वितरित किया जा सकता है।
यह पुरस्कार किसानों द्वारा पौधों की किस्मीय सम्पदा के संरक्षण में निभाई गई उनकी महत्वपूर्ण भूमिका के लिए दिया जाता है।
पौधा किस्म और कृषक अधिकार संरक्षण प्राधिकरण, नई दिल्ली ने 22 मई को नास परिसर में पुरस्कार एवं सम्मान समारोह का आयोजन किया। तारिक अनवर, राज्य मंत्री (कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण उद्योग) ने मुख्य अतिथि के रूप में पधार कर पुरस्कार प्रदान किए। इस अवसर पर हरियाणा किसान आयोग के वर्तमान अध्यक्ष एवं भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के पूर्व महानिदेशक डॉ़ आरएस परोदा, इस प्राधिकरण के पूर्व अध्यक्ष डॉ़ एस नागराजन, पीएल गौतम, डा. एस पाटिल आदि मौजूद रहे।
आयोजन में पादप जीनोम संरक्षक समुदाय पुरस्कार के अंतर्गत 10 लाख रुपये नकद, एक प्रशस्ति-पत्र तथा एक स्मृति चिह्न भी प्रदान किया गया। पादप जीनोम संरक्षक कृषक पुरस्कारों के अंतर्गत एक लाख रुपये नगद, एक प्रशस्ति-पत्र तथा एक स्मृति चिह्न प्रदान किए जाते हैं जो 10 प्रगतिशील किसानों को दिए गए।
इनमें पुरस्कार पी देवकांत इम्फा¶, महावीर सिंह आर्य चुरू, एन वासन कन्नूर, पुरानंद वैंकटेश भाट कर्नाटक, जय प्रकाश ंिसंह, जाखिनी, वाराणसी, प्रवत रंजन डे, पानपारा, नादिया, उषा ग्राम ट्रस्ट, नादिया, चंद्रशेखर सिंह, साइबी जॉर्ज, कल्लीनगल, पट्टीकाड, त्रिशुर, केरल और नरेन्द्र सिंह सिपानी, मंदसौर, मध्य प्रदेश को प्रदान किए गए। इनके अतिरिक्त 15 कृषकों तथा कृषक समुदायों को पादप जीनोम संरक्षक कृषक सम्मान से सम्मानित किया गया।
इस अवसर पर बो¶ते हुए तारिक अनवर राज्य मंत्री, कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण उद्योग ने कृषक समुदायों व कृषकों को भू- प्रजातियों के संरक्षण तथा टिकाउ कृषि के क्षेत्र में किए गए उत्कृष्ट तथा सराहनीय कार्य के ¶िए बधाई दी क्योंकि इससे उच्च उत्पादन प्राप्त होता है जिससे किसानों को अधिक आय सुनिश्चित होती है।
इस अवसर पर पौधा किस्म और कृषक अधिकार संरक्षण प्राधिकरण के अध्यक्ष डॉ़ आरआर हंचिनाल ने कहा कि हमारे किसान देश की कृषि जैवविविधता के संरक्षक हैं और वर्तमान कृषि उनकी पिछली पीढ़ियों के कठोर परिश्रम का परिणाम है।
प्राधिकरण किसानों एवं कृषक समुदायों को पादप आनुवंशिक संसाधनों के संरक्षण व परिरक्षण में निभाई गई उनकी भूमिका के लिए उन्हें पुरस्कृत, सम्मानित व प्रोत्साहित करके अपना एक अधिदेश पूरा कर रही है।

बंजर जमीन में करें औषधीय पौधों की खेती


खुशबूदार औषधीय पौधों की समूचे विश्व में मांग रहती है।
इसका कारण यह है कि इनका प्रयोग कई तरह की औषधियों एवं मेकअप आदि के सामान बनाने में होता है। बाजार में इनकी मांग के चलते किसानों को इनकी खेती से अच्छी आय होती है। ध्यान रखने वाली बात यह है कि किसान उन्हीं फसलों का चयन करें जिसका बाजार उनके आस-पास की मण्डी में हो। भारत में करीब अस्सी लाख एकड़ जमीन बंजर है। इसमें औषधीय पौधों की खेती बड़ी आसानी से हो सकती है।
इससे किसानों की आय तो होगी ही देश की अर्थ व्यवस्था में भी कृषि की हिस्सेदारी बढ़ेगी।
बंजर जमीन को सुधारने पर अच्छी खासी रकम खर्च होती है।
यदि किसान उन फसलों की खेती करें जिन्हें बंजर जमीन में किया जा सकता है तो उन्हें दोहरा फायदा हो। उन्हें जमीन सुधारने में लगने वाली कीमत भी नहीं लगानी होती साथ ही फसल से अतिरिक्त आय भी हो जाएगी।
क्षारीय यानी नमकीन जमीन में भी कई तरह के खुशबूदार औषधीय पौधे लगाए जा सकते हैं। इनसे पारंपरिक फसलों से ज्यादा पैसा भी किसानों को मिल सकता है।
पामरोज, नींबूघास, गंदा, विटीवर घास खुशबूदार पौधों की श्रेणी में आते हैं। इनकी खेती कमजोर जमीन में हो सकती है।
पामरोज तेलवाली बारहमासी घास होती है। इसमें 90 प्रतिशत तक जिरेनियाल अंश वाला तेल पाया जाता है। यह गरम एवं ठंडे इलाकों में भी आसानी से उगाई जा सकती है। नींबूघास भी बारहमासी होती है। इससे भी तेल निकलता है। इसे ठंडी एवं कम ठंडी आबोहवा में आसानी से उगाया जा सकता है। इससे भी 90 प्रतिशत तेल प्राप्त किया जा सकता है।
इसकी सुगंधी, प्रगति, प्रधान, कावेरी एवं ओडी 19 किस्में बेहद अच्छी हैं।
गेंदा की टी मिनाट, टी पेचुएल व टी इरेक्टा किस्म का इस्तेमाल भोजन, स्वाद व मेकअप का सामान बनाने के लिए किया जाता है। इससे तेल व इत्र आदि भी हासिल किया जाता है।
विटीवर घास मिट्टी को बेहतर करने की कूबत रखती है। इसकी खेती जमीन को सुधारने के लिए की जाती है। यह हर तरह से लाभदायक भी है।

बड़े काम का सिंघाड़ा


धान की खेती वाले कुछ निचले इलाकों में सिंघाड़ा की खेती पनपने लगी है। पोषक तत्वों से भरपूर होने के अलावा इसे अनाज न मानकर फल माना जाता है।
यह थॉयरॉयड एवं घेंघा रोग के मरीजों को लाभ पहुंचाता है। इस समय तालाबों में इसकी बेलें डाली जा रही हैं। इससे तैयार फसल प्रारंभ में 50-60 रुपए प्रति किलो की दर से नीचे नहीं बिकती है।
आयुव्रेद के अनुसार सिंघाड़े को हल्का, शीतल एवं तृप्तिकारक फल माना जाता है। दूध की अपेक्षा सिंघाड़ा में 22 प्रतिशत खनिज क्षार होता है। यह पित्त दोष और खून की खराबी को दूर करता है। यह इतना पौष्टिक होता है कि मानव शरीर की सभी जरूरतें इससे पूरी हो जाती हैं। इसकी करिया हरीरा एवं लाल गुढ़आ किस्में कई इलाकों में लगाई जाती हैं। इसकी खेती करने वाले लोग साल में एकबार सिर्फ इसी की खेती करते हैं। कुछ नए किसान देखा-देखी इस खेती की ओर अग्रसर होने लगे हैं। इसकी खेती के लिए लोग परंपरागत तरीके से कम पानी वाले तालाबों में बेलों को तैयार करते हैं और इन्हें बेचकर भी अच्छा पैसा कमाते हैं। किसान बड़े स्तर पर इसकी खेती करने से पहले किसी छोटे तालाब में खेती करके देखें क्योंकि इसमें हर समय पानी में कार्य करना पड़ता है। हालांकि सिंघाड़े को बाजार में आने में कुछ महीने बाकी हैं।

जलकुंभी देती है खाद और चारा


जलकुं भी जलीय पौधा आपको गंदे पानी, तालाब और नालों आदि में हर जगह दिख जाएगा। प्रारंभ में इसे लोग समस्या के रूप में देखते थे लेकिन आज यह पशुओं के लिए हरे चारे के अलावा खेती के लिए खाद के रूप में इस्तेमाल हो रहा है। नहरों में पानी के बाहव के लिए जलकुंभी दिक्कत पैदा करती है लेकिन यह भी बड़े काम की होती है।
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान पूसा के डा. जेपी शर्मा की मानें तो यह बगैर किसी पोषण के बड़ी तेजी से बढ़ती है। जलकुंभी किसी तालाब से वाष्पीकृत होने वाले पानी की कुल मात्रा से करीब पांच गुना ज्यादा पानी का अवशोषण करती है। गाय, सूअर, बतख, मुर्गी और मछलियों को पसंदीदा भोजन की पूर्ति इसी से होती है। पानी की कमी वाले कई देशों में जलकुंभी के ऊपर टमाटर की फसल की जाती है। दक्षिण अफ्रीका के कई देशों में जलकुम्भी के ऊपर मशरूम उगाया जाता है। कागज, खाद, रस्सी बनाने के साथ इसका इस्तेमाल बायोगैस ईंधन बनाने के लिए भी होता है।
अभी तक इस पौधे की देश में बेकदरी कम नहीं हुई है लेकिन पशुओं के लिए महंगे भूसे और हरे चारे के संकट के चलते कई ग्रामीण इलाकों में महिलाएं इसे हरे चारे के रूप में इस्तेमाल करने लगी हैं। कई तालाबों की बहुतायत वाले राज्यों में जलकुंभी से खाद बनाई जाने लगी है। खाद का उपयोग खेती और मछलियों दोनों के लिए किया जाता है।
हर तरफ जैविक खाद के शोर के चलते लोगों ने तालाबों में बेकार पड़ी रहने वाली जलकुंभी का उपयोग हरी खाद बनाने के लिया करना शुरू कर दिया है। इसे खेतों में सीधे जोतकर,गला देने से खाद बन जाती है। इसमें नाइट्रोजन एवं फास्फोरस प्रचुर मात्रा में होता है। इसकी खाद डालने से मिट्टी में हवा और पानी सोखने की क्षमता में काफी इजाफा होता है। जलकुंभी की जैविक खाद तैयार करने में लागत बेहद कम आती है,जबकि वर्मी कम्पोस्ट, गोबर की खाद आदि में लागत काफी ज्यादा आती है।

बोरान बढ़ाता है उपज


कद्दूवर्गीय फसलों में बोरान के छिड़काव से काफी लाभ होता है।
झरखण्ड आदि कई राज्यों में खीरे की फसल पर 25 पीपीएम मात्रा के तीन छिड़काव बोरॉन के करने से फसल में, फलों के आकार में एवं बेल के विकास में लाभ होता है।
ऐसा पाया गया कि जिन बेलों पर बोरिक अम्ल का छिड़काव किया गया उनमें फलों की वृद्धि10.5 प्रति बेल से बढ़कर 12.2 तक हो गई। फलों का औसत भार 368 ग्राम से बढ़कर 412 ग्राम हो गया। जिन खेतों में बोरिक ऐसिड छिड़का गया उनकी उपज 62.5 टन एवं जिनमें नहीं छिड़का गया, उनकी उपज 48.6 टन प्रति हेक्टेयर आई। एक प्रतिशत यूरिया के घोल के साथ बोरान का छिड़काव बेहद कारगर रहता है। इसी तरह अन्य तत्वों का भी प्रयोग किया जा सकता है। अहम बात यह है कि जिन इलाकों में जिन तत्वों की कमी है उनकी पूर्ति के लिए भी फसलों पर उनका प्रयोग किया जा सकता है।

थैलियों से करें फलों की सुरक्षा


थैलाबंदी तकनीक फलों को बचाए रखने और उनकी गुणवत्ता में सुधार के लिए कारगर पाई गई है। इससे फलों का रंग प्रभावित नहीं होता। तोड़ने के दौरान गिरकर फल बदरंग नहीं होते। इसके अलावा कई फलों के फटने, कीटों के प्रभाव से बचाने एवं भण्डारण के दौरान उत्पन्न होने वाले विकारों से यह तकनीक बचाती है।
फलोत्पादन के दौरान उन्हें सुरक्षित और सुंदर बनाए रखने के लिए किसान कई तरह के फफूंदी नाशक एवं कीटनाशकों का प्रयोग करते हैं। इसका प्रभाव फलों में रह जाता है। इसके चलते इनका आहार बनाने वाले लोगों पर भी इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। बागों में जहरों का छिड़काव भी आसान नहीं लेकिन बगैर जहर के फलों को स्वस्थ और सुंदर बनाने में थैलाबंदी एक साधारण दिखने वाली असाधारण विधि है।
थैलीबंदी का चलन कुछ देशों में भी है, जिनमें चीन, जापान, अमेरिका आदि प्रमुख हैं।
आम में थैलाबंदी तुड़ाई से 45 दिन पूर्व,अमरूद में तुड़ाई से छह से नौ सप्ताह पहले खड़े पौधे पर थैली लगाई जाती हैं।
सभी फलों में थैलाबंदी एक निर्धारित समय पर ही की जाती है। भारत में रिलायंस कंपनी ने अनार की थैलाबंदी के लिए विशेष प्रकार की थैलियां बनाईं। कई मामलों में स्पन, मोमी पेपर, नाईलोन, टेलिफोन बुक पेपर, ब्रांडेड कपड़े आदि के थैले काम में लिए जाते हैं।